गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

कल हीं की बात है

 

कविता 

                                                    कल हीं की बात है 

-- जगदीश प्र. गुप्ता  



मेरे प्यारे बेटे ,

तुम्हारा ये जन्म दिन 

जाने क्यों ले चला है मुझे 

आज फिर ,

यादों की उन सुनहरी गलियों मे जहां

तुम मिले थे हमे 

दुनिया की सभी चाहतों से बढ़कर 

ईश्वर के एक खूबसूरत वरदान की तरह । 


सूरज तो निकलता है रोज हीं

पर जाने क्या बात थी उस सुबह में

एक अजीब सा एहसास, रहस्य, खामोशी 

जैसे कुछ कहने को हो बेताब कानों में । 


बीतते हर पलों के साथ हीं 

बढ़ता रहा एक भय , एक बेचैनी

हर ओर एक अफरातफरी , भागते कदम 

कानों में गूँजते हैं आज भी 

वो फुसफुसाते स्वर , बेरहम । 


वेदना के वे मरमान्तक क्षण 

उड़ेलते हैं आज भी कानों में अग्नि-कण

सांसें चलती तो थी पर , सहमी सहमी

हवाएँ भी थीं कुछ बेदम , रुकी रुकी


सृष्टि का वो सबसे पहला शब्द , क्यां क्यां


तभी नैपथ्य से उठा एक नाद स्वर

हृदय के तारों पर छेड़ता एक  राग मधुर

सृष्टि का वो सबसे पहला शब्द , क्यां क्यां

धरा के गर्भ से ज्यों फूटता है , अंकुर नया


एक झटके में अचानक , सब कुछ बादल गया

सांसें जो थीं खामोश , रुकी रुकी 

फिर से मचल पड़ीं ;

घड़ी घण्ट के ताल पर 

हवाएँ थिरक उठीं । 

पहन घुँघरू पावों में अपनी 

खुशियाँ  यूं नाचीं ,

सारा अंबर झूम उठा ।

बधाई हो , बेटा हुआ है 

और इस तरह तुम आए 

बधाइयों  के  बीच 

अपनी माँ के आँचल में । 

                                                            

 

छोटे छोटे हांथ , छोटे छोटे पैर 
नर्म रुई के फाहे सा बदन , रेशमी 

काली काली आँखें , अधखिली नन्ही सी 

भुला नहीं हूँ मैं , आज भी 

वो पहली कोशिश , पहचानने की ।  


वो पहली कोशिश , पहचानने की ।  


 

  

मेरे प्यारे बेटे ,

आज तुम  बड़े हो चुके हो

दुनिया के समर मे खड़े हो चुके हो 

फिर भी लगता है जैसे , 

कल हीं की बात हो  । 


उठे ये हांथ हमारे 

मांगती हैं दुआएं 

हर वो सपने , जो कभी देखे थे तुमने 

दामन में तुम्हारे , सिमट सिमट जाएँ 

नाचे खुशियाँ , आँगन मे तेरे

दुख की कभी कहीं , बदली न छाए ।


तुम्हारा ये जन्म दिन 

हर पल , हर छिन 

बने ऐसे ही एहसासों का गुलशन 

सफलताओं के हजार फूल खिलें 

ज्ञान के दीप जलें

हों वारिश खुसियों की

भींगे तन मन । 

                                                                 

***** 


                                                                                                                                   


मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव : तू तू मैं मैं के कारण

 

                   अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव : तू तू मैं मैं के कारण  


अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव तो हो गया पर अंतिम परिणाम निकले मे इतनी देरी क्यों हुई ? भारत मे तो मतगणना होने के लगभग 24 घंटे के अंदर कौन जीता कौन हारा इसकी घोषणा कर दी जाती है, फिर अमेरिका में ऐसा क्यों नहीं ? वहाँ नतीजों की घोषणा मे आखिर इतनी देर क्यों लगती है, और घोषणा हो जाने के बाद भी मैं जीता, तू हारा, नहीं तू हारा, मैं जीता, इतनी तू तू मैं मैं क्यों होती है? भूतपूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प बार बार यह दावा





कर रहे हैं कि चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली हुई है और वास्तविकता यह कि वो चुनाव जीत चुके हैं, कि उन्हें जान बुझ कर हराने का षड्यन्त्र किया गया है। वहीं दूसरी ओर जोसेफ बीडेन सारे आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए यह कहते हैं कि ट्रम्प हार चुके हैं। मेरी जीत पर किसी को कोई शंका नहीं होनी चाहिए। आखिर अमेरिकी  चुनाव 
                                                          
                                                             

                                                                                 

प्रणाली मे ऐसी क्या बात है कि चुनाव सम्पन्न हो जाने के बाद भी इस तरह का तू तू मै मै जारी है । यद्यपि अब यह निश्चित हो चुका है कि बीडेन जीत चुके हैं, फिर भी यह प्रश्न तो अभी भी खड़ा  है कि आखिर इस तरह का तू तू मैं मैं  क्यों ? इस प्रश्न का जबाब अमेरिकी चुनाव प्रणाली मे ही निहित है।

अमेरिकी राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति चुनाव प्रक्रिया 


अमेरिका में राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति का निर्वाचन कहने को तो सीधे जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से होता है, पर वास्तविकता मे ऐसा है नहीं। इन दोनों का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से 538 सदस्यों के एक समूह जिसे इलेक्टरल कालेज (Electoral College) के नाम से जाना जाता है, के द्वारा होता है। इलेक्टरल कालेज के इन सदस्यों का चुनाव पार्टी आधार पर, खास कर राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए अमेरिका के सभी राज्यों में रजिस्टर्ड मतदाताओं द्वारा होता है। अमेरिका में कुल 50 राज्य हैं और इन सभी 50 राज्यों में उनकी जनसंख्या के आधार पर इलेक्टरल कॉलेज के सदस्यों का कोटा निर्धारित होता है। डेमोक्रैट एवं रिपब्लिकन दोनों पार्टियां सभी राज्यों मे अपने अपने उम्मीदवार चुनाव के लिए खड़ा करते हैं तथा इनका निर्वाचन अमेरिकी नागरिकों द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव पद्धति द्वारा होता है। जिस किसी पार्टी का उम्मीदवार बहुमत के आधार पर इन राज्यों मे विजयी घोषित होते हैं, उन्हें राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति चुनने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। कुल 538 सदस्यों के इलेक्टरल कॉलेज के समूह मे राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति चुने जाने के लिए कम से कम 270 वोट प्राप्त करना आवश्यक है। 2020 मे हुए वर्तमान चुनाव मे बीडेन को 306 एवं ट्रम्प को 232 सदस्यों का समर्थन प्राप्त हुआ, जिस कारण बीडेन अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए हैं।         

 

अमेरिकी चुनाव प्रणाली की  खामियाँ : तू तू मैं मैं का कारण 

1. अमेरिका मे भारत की तरह का कोई Election Commission of India नहीं है, जो पूरे देश मे राज्य तथा केन्द्र, दोनों स्तरों का चुनाव कराती हो। वहाँ एक Federal Election Commission अवश्य है पर उसका कार्य चुनाव मे भाग ले रहे उम्मीदवारों द्वारा चुनाव अभियान मे किए जा रहे आय-व्यय पर नजर रखना तथा इससे संबंधित कानूनों को लागू कराना मात्र है। भारत मे यह कार्य भी भारतीय निर्वाचन आयोग ही करती है। वहाँ सारे चुनाव राज्यों के द्वारा चुने गए स्थानीय स्तर के अधिकारियों द्वारा ही कराये  जाते  हैं । यहाँ तक कि केन्द्रीय स्तर का चुनाव जैसे राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव भी इन्हीं राज्य स्तर के स्थानीय अधिकारियों द्वारा बिना किसी केन्द्रीय प्राधिकारण के अधीन तथा देख-रेख के कराया जाता है।

भारत में राज्य स्तर जैसे एम.एल.ए का चुनाव हो या केन्द्रीय स्तर जैसे एम.पी का चुनाव हो, दोनों ही चुनाव भारतीय निर्वाचन आयोग (Election Commission of India) द्वारा हीं कराए जाते हैं। चुनाव के समय राज्यों के स्थानीय अधिकारी जैसे सिविल सर्वेन्ट, पुलिस, क्लर्क तथा अन्य विभागों के अधिकारी भी चुनाव आयोग के अधीन हो जाते हैं और आयोग के निर्देशानुसार ही काम करते हैं। केन्द्रीय चुनाव आयोग को राज्यों तथा केन्द्रीय स्तर के चुनाव कराने के लिए, चुनाव के समय बहुत ही बड़े पैमाने पर अधिकार प्राप्त हो जाते हैं। आयोग, चुनाव कार्य मे लगे किसी भी अधिकारी को भ्रष्ट आचरण करने या निर्देशानुसार काम न करने पर निलंबित (suspend) कर सकता है। इसके अलावा अन्य तरह के दंड भी दे सकता है। चुकि  भारत मे केन्द्रीय स्तर पर एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग है, जो चुनाव संबंधित सारे फैसले लेता है, अतः सभी राज्यों के मतपत्रों का डिजाइन, चुनाव की तारीख, कर्मचारियों का चुनाव और उनका प्रशिक्षण, सारे काम इस आयोग द्वारा ही होता है। इसमे राज्य सरकारों द्वारा कर्मचारी मुहैया कराने के अलावा कोई अन्य दखल नहीं होता। 


2. अमेरिका में चुकि इस तरह की कोई संवैधानिक केन्द्रीय संस्था नहीं है जिसे सारे देश में राज्य और केंद्र दोनों स्तर के चुनाव कराने का अधिकार प्राप्त हो, अतः सारे चुनाव राज्य स्तर के स्थानीय अधिकारियों द्वारा ही कराया जाता है। उसमें भी मजा ये कि हर राज्य अपना अपना कानून बनाने के लिए स्वतंत्र है। मतदाताओं का  रेजिस्ट्रैशन करना हो या वोटर लिस्ट बनाना, वोटर का सत्यापन करने, चुनाव की तिथि निर्धारित करने, बैलट पेपर तैयार करने, चुनाव कराने के लिए कर्मचारियों का चयन तथा चुनाव करने एवं नतीजा घोषित करने तक का सभी अधिकार राज्य सरकार के इन्हीं प्रशासकों एवं कर्मचारियों को प्राप्त है। अमेरिका में कुल 50 राज्य हैं । अब आप कल्पना कर सकते हैं कि जब सभी राज्य, जहां अलग अलग पार्टियां सत्तारुढ़ हैं, उन्हें बैलट पेपर का डिजाइन तैयार करने से लेकर चुनाव कराने एवं अंतिम परिणाम घोषित करने तक का अधिकार प्राप्त हो, तो चुनाव नतीजे पर उंगलियाँ तो उठेगी हीं ।


3. प्रत्येक राज्य, चुनाव संबंधित कार्यों के निष्पादन के लिए, एक चीफ इलेक्शन ऑफिसियल का चुनाव करती है जिसके प्रशासनीक क्षेत्र के अंदर एवं दिशा निर्देश पर राज्य के सारे चुनाव अधिकारी काम करते हैं। ज्यादातर राज्यों, करीब 24 राज्यों मे सेक्रेटरी आफ स्टेट ही चीफ इलेक्शन ऑफिसियल होता है। सेक्रेटरी आफ स्टेट पद पर नियुक्ति पार्टी आधारित चुनाव प्रक्रिया द्वारा होता है। कुछ अन्य राज्यों मे चीफ एलेक्शन ऑफिसियल के चुनाव की प्रक्रिया भिन्न है। स्पष्ट है कि ये चीफ इलेक्शन ऑफिसियल, जो भी पार्टी जिस राज्य मे बहुमत में हैं, उनके वोट के बल पर ही जीतकर आते हैं, अतः उस पार्टी से सम्बद्ध होते हैं ; भारत के चीफ इलेक्शन कमिशनर की तरह असंबद्ध नहीं होते। कर्मचारियों का चुनाव तथा प्रशिक्षण, राज्य स्तर पर वोटर लिस्ट एवं डाटा संग्रह, चुनाव अधिकारियों को वोटिंग मशिन एवंअन्य चुनाव सामग्री मुहैया कराना, चुनाव संबंधित अन्य सारे कार्य इन्हीं राज्य स्तरीय चीफ इलेक्शन ऑफिसियल की देखरेख मे होता है। चुकि चीफ इलेक्शन ऑफिसियल या सेक्रेटरी आफ स्टेट का चुनाव पार्टी आधार पर होता है, अतः विभन्न राज्यों के चुनाव अधिकारी अलग अलग पार्टियों के होते हैं। ऐसे में चुनाव अधिकारियों पर दोषारोपण करना और भी आसान हो जाता है। जाँर्जिया, मिशिगन, पेंसिलवानिया , विस्कोसिन तथा अन्य कई राज्यों के चुनाव अधिकारियों पर ट्रम्प की ओर से चुनाव में धांधली के आरोप लगाए गए हैं। कारण यह कि इन राज्यों के चीफ इलेक्शन ऑफिसियल रिपब्लिकन पार्टी का न होकर डेमोक्रैट पार्टी से सम्बद्ध हैं।


4 . अमेरिकी प्रणाली की सबसे बड़ी खामी यह है कि लोग वोट तो देते हैं राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति के लिए खड़े उम्मीदवारों के नाम पर, परंतु इलेक्टरल कालेज सिस्टम होने के कारण उस क्षेत्र से चुनकर आता है कोई और ही व्यक्ति। और बाद मे यही लोग राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं । प्रत्यक्ष चुनाव पद्धति न होने के कारण, राष्ट्रपति पद का एक उम्मीदवार सारे देश मे पड़े वोटों की कुल संख्या का बहुमत प्राप्त करने के बाद भी राष्ट्रपति बनने से बँचित रह सकता है, यदि उसे 538 सदस्यों के इलेक्टरल कॉलेज मे बहुमत अर्थात 270 वोट प्राप्त नहीं है तो। जैसे यदि कोई व्यक्ति सारे देश के विभिन्न राज्यों मे हुए प्रत्यक्ष चुनाव मे जनता द्वारा डाले गए कुल वोटों की संख्या का 55% प्राप्त करता है, परंतु इलेक्टरल कॉलेज मे उसे बहुमत प्राप्त नहीं है, तो वह राष्ट्रपति नहीं बन सकता।


5 . जहां तक चुनावों मे धांधली का प्रश्न है, भारतीय चुनाव पद्धति की तुलना मे अमेरिका मे इसकी संभावना बहुत ज्यादा है। भारत में श्री टी.एन शेषन के पहले राज्यों मे चुनाव के समय किस प्रकार की धांधलियाँ होती थी, ये पूरा देश देख चुका है। शेषन ने राज्य सरकारों का चुनाव मे हस्तक्षेप केन्द्रीय सुरक्षा बलों को मतदान बूथों पर नियुक्त कर लगभग समाप्त कर दिया। इसी के साथ अन्य नियमों को भी कड़ाई से पालन कराया। ऐसा वे इसलिए कर सके क्योंकि वे किसी पार्टी से सम्बद्ध नहीं थे। राज्यों के चुनाव अधिकारी यदि किसी पार्टी से सम्बद्ध हों, तो निश्चित रूप से चुनाव मे धांधली की संभावना बढ़ जाती है। राज्य सरकार का यदि सर्वोच्च चुनाव अधिकारी या कोई नीचे का ही कर्मचारी सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष मे वोटिंग करवाता है, या अन्य तरह की धांधली करता है, तो उसे देखने वाला कौन है। राज्य मे सत्तारूढ़ पार्टी यदि खुद ही धांधली करवा रही हो तो, उससे प्रश्न करने वाला कौन है ? सिवाय कोर्ट मे इस धांधली की शिकायत करने के अलावा क्या रास्ता बचता है ?

भारत में चुनाव आयोग चुकि किसी पार्टी से सम्बद्ध न होकर एक स्वतंत्र संस्था है तथा जिसके फैसलों को न केन्द्रीय सरकार और न राज्य सरकारें प्रभावित कर सकती हैं, अतः इसकी विश्वसनीयता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। यहाँ तक कि केन्द्र सरकार भी चीफ इलेक्शन कमिशनर या उसके साथ के अन्य कमिश्नरों को हटा नहीं सकता है। इसीलिए यहाँ चीफ इलेक्शन कमिश्नर निर्भीक हो कर काम करते हैं। मैं यह नहीं कहता कि विकेंद्रीकृत चुनाव प्रणाली होने के कारण अमेरिका मे बड़े पैमाने पर चुनाव में धांधली होती है। होती है या नहीं, ये तो जांच का विषय है। पर ट्रम्प तो यही कह रहे हैं धांधली हुई और दूसरी ओर बीडेन कह रहे हैं नहीं हुई। स्पष्ट है इस तू तू मैं मैं का सबसे बड़ा कारण है अमेरिकी चुनाव प्रणाली मे निहित संरचनात्मक दोष के कारण विश्वसनीयता का अभाव।


*********




learnaalaya





 

       



       




























































































शनिवार, 9 जनवरी 2016

नमस्कार, वाणकम्म, सुस्वागतम, खुस आमदीद, सतश्री अकाल, WELCOME ॰


                       श्री वक्रतुंड  महाकाय  ।  सूर्य कोटी संप्रभ:॥
                    निर्विघ्नम् कुरु मे देव । सर्व कार्येषु सर्वदा ॥ 

नमस्कार, वाणकम्म, सुस्वागतम, खुस आमदीद, सतश्री अकाल, WELCOME। 

सारांश के इस प्रथम ब्लाग पोस्ट के प्रकाशन के शुभ अवसर पर आप सभी मित्रों, अभिभावकों एवं शुभचिंतकों का हार्दिक स्वागत । बहुत दिनों से मेरी एक इच्छा थी कि मैं भी अपने अन्य मित्रों एवं लेखकों की तरह, अपने खुद का एक ब्लाग बनाऊँ तथा अपनी रचनाएँ इस ब्लाग के माध्यम से आप तक पहुंचाऊं। पर समस्या यह थी कि इंटरनेट पर हिन्दी में लिखना तब इतना सरल नहीं था। हिन्दी का फॉन्ट डाउन्लोड कीजिये, फिर हिन्दी वर्णमाला का की बोर्ड अंग्रेजी के की बोर्ड अनुसार याद कीजिये, मतलब कि झंझट ही झंझट। पर अब ऐसा नहीं। हिन्दी मे टाईप करना अब काफी सरल हो गया है। अँग्रेजी के की बोर्ड से ही अब आप हिन्दी मे टाईप कर सकते हैं। गूगल एवं माइक्रोसॉफ्ट वालों ने इसे काफी आसान बना दिया है। हिन्दी के शब्द आप अँग्रेजी लिपि में टाइप कीजिये, वह अपने आप हिन्दी लिपि मे परिवर्तित हो जाएगा।

दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह था कि इस ब्लाग का नाम क्या रक्खा जाए । बहुत सोंच विचार के बाद मैंने इसका नाम रक्खा है "सारांश"। एक व्यक्ति अपने जीवन में जो जीता है, अनुभव करता है , वही वह अपने साहित्य में देता है। इस अर्थ में एक व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन के अनुभवों का निचोड़ है "सारांश", जो प्रतिबिम्बित होता है उसकी रचनाओं में। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि एक व्यक्ति का साहित्य और कुछ नहीं बल्कि "सारांश" है उस साहित्यकार का । इस नाम को चुनने के पीछे हो सकता है शायद मेरे अन्तर्मन मे भी कहीं यही आकॉक्षा रही हो कि मैं भी अपने जीवन का सारांश अपनी रचनाओं के माध्यम से देने का प्रयास करूँ।

ब्लाग लेखन का मेरा यह पहला ही अनुभव है, अत: अनुभवी मित्रों से मेरा यह आग्रह है कि कृपया जहां भी कोई त्रुटि नजर आए या सुधार की आवश्यकता महसूस हो, अपना बहुमूल्य मार्ग दर्शन अवश्य प्रदान करें। कृपया यह भी बताएं कि रचनाओं का स्तर क्या है, आपको कैसी लगी ताकि भविष्य में मैं इनमें वांछित सुधार ला सकूँ। आपके आशीर्वचनों की प्रतिक्षा रहेगी।
                                                                                                                     


       

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

विकास पुरुष नितीश : कितना झूठ कितना सच



विश्लेषण की दृष्टि से देखें तो  नितीश की राजनीतिक यात्रा के दो महत्वपूर्ण पड़ाव हैं। पहला, जब वर्ष 2000 मे बीजेपी ने राज्य मे जेडीयू तथा समता पार्टी (21+34=55) दोनों के कुल सीटों से ज्यादा सीटें (67) पाने के बावजूद नितीश को बिहार के मुख्य मंत्री के रूप मे प्रोजेक्ट किया। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि उस समय के बीजेपी के केंद्रीय नेताओं ने वास्तविकता मे केंद्र मे सत्ता पाने के लोभ मे राज्य के हितों की अनदेखी कर दी, वरना क्या कारण था कि राज्य मे जेडीयू एवं समता दोनों से संयुक्त रूप से भी बड़ी पार्टी होने तथा ज्यादा सीटें जीतने के वावजूद बीजेपी ने अपना मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट क्यों नहीं किया। नितीश को मुख्य मंत्री के रूप मे प्रोजेक्ट करने वालों मे बीजेपी के लाल कृष्ण आडवाणी का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। पर नितीश को मुख्य मंत्री के रूप मे प्रोजेक्ट करना बीजेपी का  कितना गलत निर्णय था इसकी मिसाल तब देखने को मिली, जब 2010 मे एक रैली के लिए पटना मे आए बीजेपी के नेताओं को भोजन पर आने का निमंत्रण देकर, नितीश ने मोदी द्वेष के कारण अपने रावण से भी बड़े अहंकार का परिचय दिया। अंतिम समय मे सारे बुलाये गए बीजेपी नेताओं को भोजन का निमंत्रण रद्द कर दिया गया। मजे की बात यह कि जिन नेताओं का निमंत्रण रद्द किया गया उसमे लाल कृष्ण आडवाणी भी थे, वही आडवाणी जिन्होंने बीजेपी के राज्य इकाई के हितों की बली देकर नितीश को मुख्य मंत्री के रूप मे प्रोजेक्ट किया था। खैर ये तो वर्ष 2010 की बात है, फिर से लौटते है वर्ष 2000 की ओर। 

वर्ष 2000 से लेकर वर्ष 2013 तक , जब नितीश ने शायद देश का प्रधान मंत्री बनाने की अति महत्वाकांक्षा तथा अपने हिमालय से भी बड़े अहंकार के कारण बीजेपी से तलाक ले लिया - इस पूरे काल खंड को मैं नितीश का पहला पड़ाव मानता हूँ। नितीश का ये काल खंड शायद उनके जीवन का उत्कृष्टतम काल खंड है, जिसमे उन्होने बीजेपी के सहयोग से नई उचाइयों को छूआ। वर्ष 2000 मे यद्यपि सिर्फ 8 दिन ही पहली बार मुख्य मंत्री रहे, परन्तु एनडीए मे उनका वर्चस्व तथा नेतृत्व स्थापित करने मे ये 8 दिन अति महत्व पूर्ण साबित हुए। 2005 के चुनाव मे पहली बार एनडीए को पूर्ण बहुमत मिला जब बीजेपी को 55 तथा जेडीयू को 88 सीटें प्राप्त हुई तथा नितीश इसके मुख्य मंत्री बने। 2010 के चुनाव मे एनडीए फिर से पूर्ण बहुमत प्राप्त करने मे सफल रही। इस बार तो 2005 के मुक़ाबले और भी ज्यादा सीटें, बीजेपी 91 तथा जेडीयू 115 सीटें प्राप्त करने मे सफल हुई। इसमे कोई शक नहीं कि एनडीए इस काल खंड मे बिहार मे विकास करने मे सफल हुई। 2005-06 मे जिस बिहार का जीडीपी ग्रोथ रेट निगेटिव था, वह अगले 7 वर्षों तक अर्थात 2006-07 से 20013-14 तक, प्रति वर्ष लगभग 12% के ऊंचे एवरेज जीडीपी विकास दर को प्राप्त करने मे सफल रहा। यह सफलता जमीन पर भी लोगों को दिखाई दिया। सबसे बड़ी सफलता थी बिहार से लालू के नेतृत्व वाली जंगल राज की समाप्ती। इस सारी सफलता का श्रेय मिला नितीश को, जबकि वास्तविकता यह थी कि इस सफलता मे बीजेपी का बहुत बड़ा योगदान था। सुशील कुमार मोदी, जो इस मंत्रिमंडल मे वित्त मंत्री के साथ साथ उप मुख्य मंत्री भी थे, बिहार के इस बदलाव मे उनका बहुत बड़ा योगदान था। वित्त की जितनी समझ इन्हे थी तथा जिस सूझ बुझ से इन्होंने बिहार मे बजट तथा विभिन्न विभागों के वित्तीय आवश्यकताओं मे ताल मेल बैठाया, उसने बिहार का चेहरा बदलने मे




एक बड़ी भूमिका निभाई, पर बीजेपी के इस योग्यतम नेता को जितना क्रेडिट मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। सारा क्रेडिट नितीश ले गए और इन्हें विकास पुरुष का खिताब तक मिल गया। खैर, यहा तक तो फिर भी ठीक था, पर इस विकास पुरुष के खिताब ने नितीश की महत्वाकांक्षा की आग मे घी का काम किया। इस आग मे घी डालने का काम बीजेपी विरोधी मीडिया ने भी खुलकर किया। कुछ अखबारों ने तो नितीश को देश का भावी प्रधान मंत्री तक निरूपित करना शुरू कर दिया। बस यहीं से नितीश के पतन तथा उनके राजनीतिक जीवन के दूसरे पड़ाव की कहानी शुरू होती है। 

20014 का लोक सभा का चुनाव सिर पर आने ही वाला था। नितीश को लगा कि यदि वो बिहार मे अच्छी संख्या मे सीटें जीतने मे सफल होते हैं, तो लोकसभा चुनाव मे बीजेपी या विरोधी मोर्चा जो भी अच्छी संख्या मे सीटें जीतने मे सफल होंगी उनके सहयोग से वे प्रधान मंत्री बन सकते हैं। उनके चाटुकार उन्हें यह समझने मे सफल रहे कि यदि बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी होकर उभरती है, तब भी वह इतनी सीटें नहीं प्राप्त कर पाएगी कि अपने दम पर सरकार बना सके। ऐसी हालत मे वे बीजेपी से इतर की पार्टियों जैसे ममता, बीजेडी, सीपीएम, कांग्रेस तथा ऐसी ही अन्य पार्टियों को अपने विकास पुरुष की छवि के दम पर सरकार बनाने के लिए सहयोग देने पर राजी कर लेंगे। इसके अलावा एक दूसरा आकलन भी था कि वे बीजेपी के सहयोग से भी अपनी सरकार बना सकते हैं। लाल कृष्ण आडवाणी ने वैसे भी नितीश को बिहार मे बीजेपी की अधिक संख्या होने के बावजूद मुख्य मंत्री बनाने मे सहयोग तो किया ही था। अत: आकलन यह था कि यदि बीजेपी अपने दम पर सरकार नहीं बना सकी, जिसकी सबसे ज्यादा संभावना है, तो वह आडवाणी को फिर से अपने नाम पर समर्थन देने के लिए मना लेंगे। यदि आडवाणी मान गए तो ममता, नवीन पटनायक, मुलायम, डीएमके, एडीएमके आदि पार्टियों से सहयोग प्राप्त करना उतना कठिन नहीं होगा। पर भाग्य को कुछ और ही मंजूर था। नियति के एक थपेरे ने इनके सारे मंसूबों को चकनाचूर कर रख दिया। बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को अपना प्रधान मंत्री उम्मीदवार न सिर्फ चुन लिया बल्कि उसकी घोषणा भी कर दी। नितीश ने अंत अंत तक यह प्रयास किया कि बीजेपी मोदी को न चुन आडवाणी को अपना प्रधान मंत्री का उम्मीदवार तय करे क्योंकि उनके आकलन अनुसार प्रधान मंत्री बनाने मे यदि कोई व्यक्ति उनकी मदद कर सकता था तो वह लाल कृष्ण आडवाणी ही हो सकते थे न कि मोदी। 


यहीं से शुरू होती है नितीश के पतन की कहानी। अच्छी भली सरकार चल रही थी, पर आडवाणी को प्रधान मंत्री का उम्मीदवार बनाने एवं मोदी का विरोध करने के लिए नितीश ने बीजेपी के आंतरिक मामलों मे दखल देना शुरू किया। दबाब बनाने के लिए नितीश ने यहाँ तक एलान कर दिया कि बीजेपी यदि मोदी को अपना उम्मीदवार चुनती है तो वह संबंध विच्छेद कर लेगी। पर वे भूल गए कि बीजेपी कोई एक नेता पर आधारित पारिवारिक पार्टी नहीं है। वही हुआ जिसका नितीश को डर था। बीजेपी ने मोदीको चुन लिया, पर तब तक अपने महत्वाकांक्षा तथा अहंकार मे अंधे होकर नितीश इतना ज्यादा आगे बढ़ चुके थे कि वापस लौटने का भी कोई रास्ता नहीं बचा और अंतत: दिनांक 16 जून, 2013 को उन्होने एक प्रैस कान्फ्रेंस कर बीजेपी के साथ संबंध विच्छेद की घोषणा कर दिया। उसी दिन उन्होने बीजेपी के 11 मंत्रियों को मंत्री मण्डल से हटाने के लिए राज्यपाल से सिफ़ारिश भी कर दी। मैंने पतन की शुरुआत शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया है क्योंकि एक अच्छे भले तथा ढंग से चल रहे सरकार को सिर्फ अपने अहंकारवश  तोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं थी। पर अहंकार मे आदमी को जमीन दीखता कहाँ है?  नितीश को लगता था जनता मूर्ख है, वह उससे एलाएन्स क्यों तोड़ लिया इसका जबाब नहीं मांगेगी। उन्हें यह भी लगता था कि उनकी विकास पुरुष की जो छवि बनी है उसके कारण लोक सभा के चुनाव मे बिहार मे उनकी बहुत बड़ी जीत होगी और वे अभी भी अपनी प्रधान मंत्री बनने की महत्वाकांक्षी योजना को मूर्त रूप दे सकते हैं। पर ये पब्लिक है, सब जानती है। लोकसभा के चुनाव मे जनता ने ऐसा जोरदार  चपत लगाया कि उसकी गूंज कई महीनों तक सुनाई देती रही। बिहार मे लोकसभा की कुल 40 सीटों मे से जेडीयू को मात्र 2 सीटें ही मिल सकी, दूसरी ओर मोदी के नेतृत्व मे चुनाव लड़ रही एनडीए गठबंधन कुल 31 सीटें प्राप्त करने मे सफल रही। लोकसभा के इस परिणाम ने नितीश को अंदर से हिला कर रख दिया। पतन का ये पहला दृश्य था। नितीश को अब एहशास हो चुका था  कि यदि यही स्थिति रही तो 2015 मे होने वाले बिहार चुनाव मे मुख्य मंत्री की कुर्सी बचानी भी मुसकिल होगी। चाटुकारों ने फिर समझाया कि यदि जेडीयू एवं लालू नीत आरजेडी के 2014 लोकसभा के चुनाव मे प्राप्त वोट शेयर को मिला दिया जाए तो अभी भी बीजेपी नीत गठबंधन को मात दिया जा सकता है। मरता क्या न करता। नितीश यह भी भूल गए कि जिस लालू के जंगल राज के खात्मा के लिए  उन्होने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था, आज उसी जंगल राज के प्रतीक लालू से हाथ मिलाना कितना अनैतिक है। पर अपने अहंकार के कारण नितीश जिस निचले मुकाम पर पहुँच चुके हैं, उनके सामने लालू की बैशाखी के अलावा अब और कोई चारा भी नहीं है। अब 2015 का चुनाव ही यह तय करेगा कि जनता इस अनैतिक गठबंधन को स्वीकार करती भी है या नहीं। 

पर इस पूरे प्रकरण मे तथा खासकर 2015 के चुनाव प्रकरण मे भी एक प्रश्न जो अभी तक अनुत्तरित है वह है , क्या वास्तविकता मे नितीश एक विकास पुरुष हैं, क्या वास्तविकता मे उनमे इतनी क्षमता है कि वे लालू के कंधे पर बैठ कर भी  बिहार का विकास ठीक उसी तरह कर सकते हैं जैसा एनडीए के साथ मिलकर किया था। विकास पुरुष की उनकी छवि वास्तविकता मे एक सच्चाई है या मात्र भ्रम । इस तथ्य को समझने के लिए यह आवश्यक है की कि उनके दूसरे पड़ाव अर्थात 16 जून 2013 को जब उन्होने बीजेपी से अलग होने का ऐलान किया था, तब से लेकर 2015 के अभी तक के कार्यकलापों का लेखा जोखा लिया जाए। किसी सरकार के कार्य निष्पादन (Performance)  को नापने का यूं तो ढेर सारे पैमाने हैं। पर मैं यहाँ मात्र दो ही पैमाना ले रहा हूँ, पहला - जीडीपी ग्रोथ रेट, जो किसी भी सरकार के आर्थिक सफलता को नापने का सबसे बड़ा माध्यम है, और दूसरा- क्राइम रेट अर्थात अपराध दर, जो राज्य मे शांति व्यवस्था की स्थिति क्या है, इसे नापने का सबसे बड़ा पैमाना है। और मुझे यह कहने मे तनिक भी हिचक नहीं है कि इन दोनों ही पैमाने पर नितीश बुरी तरह असफल नजर आते हैं।                                             



सबसे पहले जीडीपी विकास दर को लें। 2012-13 का आर्थिक वर्ष जब तक नितीश बीजेपी के साथ थे, तब तक का यदि पिछले 7 वर्षों का एनडीए सरकार का औसत विकास दर देखा जाए, तो यह विकास दर था 12% , जो एक बहुत ही उचे दर्जे के आर्थिक मोर्चे पर सफलता को दर्शाता है। 2012-13 जिस वर्ष नितीश ने बीजेपी से तलाक लिया उस वर्ष तो विकास दर पिछले 7 वर्षों के औसत से भी ऊपर 14.5% था। इस बात का जिक्र सुशील मोदी ने तो किया ही  है, बिजनेस स्टैंडर्ड ने भी इस आंकड़े को प्रकाशित किया था। परंतु ऐसा क्या हुआ कि बीजेपी के गठबंधन से हटते ही जीडीपी विकास दर मे गिरावट आनी  शुरू हो गई तथा 2014-15 का जो आंकड़ा उपलब्ध है, उससे तो पता चलता है कि वर्तमान विकास दर पिछले 7 वर्षों के औसत विकास दर से भी बहुत ज्यादा नीचे गिर चुका है। 2014-15 का  विकास दर 2012-13 के विकास दर 14.5 से गिरकर मात्र  9% पर आ चुका है। यदि कितने % की  गिरावट आई, इस बात का आकलन किया जाए तो 2012-13 की तुलना मे  यह गिरावट लगभग 40% बैठता है। अर्थात मात्र 2वर्षों मे आर्थिक विकास दर मे 40%  की गिरावट आई है। क्या इसके बाद भी आप नितीश को विकास पुरुष कह सकते हैं ? 
अब आते हैं क्राइम रेट अर्थात अपराध दर पर। अपराध दर की छान-बीन के लिए मैंने बिहार पुलिस द्वारा प्रकाशित आंकड़ों का ही सहारा लिया है। बीजेपी के सरकार से हटने के बाद अपहरण जो कि जंगल राज के समय सबसे तेज गति से चलने वाला धंधा था, उसकी क्या स्थिति है ? उसमे कमी आई है या तेजी, राज्य मे दंगों की क्या स्थिति है, और औरतें कितनी सुरक्षित हैं- मैंने इन तीन चीजों के माध्यम से बिहार मे कानून व्यवस्था की स्थिति को जानने का प्रयास किया है। परिणाम आपके सामने है। 2012-13 मे अपहरण की  घटनाएँ जिसकी संख्या 4765 थी,  वह 2014-15 मे बढ़ कर 6,889 पहुँच गई, अर्थात 2 वर्षों मे इसकी संख्या मे 45% की वृद्धि हुई है । क्या अर्थ है इसका ?  मात्र 2 वर्षों मे अपहरण की घटनाओं मे 45% की विशाल वृद्धि यह आने वाले दिनों का स्पष्ट संकेत है, कि बस अब फिर से दुबारा जंगल राज लौटने ही वाला है । जंगल राज के लौटने की धमक अपहरणों की संख्या मे 45% की इस वृद्धि मे स्पष्ट देखा जा सकता है।
दूसरा पैमाना दंगों की संख्या मे आई वृद्धि से संबन्धित है । यहाँ भी स्थिति कोई ज्यादा भिन्न नहीं है। 2012-13 मे 10,914 दंगे हुए थे जो 2014-15 मे बढ़कर 13,517 पहुँच गया। अर्थात लगभग 24% की वृद्धि, जो आने वाले समय मे एक भयावह स्थिति की ओर संकेत कर रहा है। 
तीसरा पैमाना था रेप अर्थात बलात्कार की संख्या मे आई वृद्धि या गिरावट से। यहाँ भी स्थिति कोई बहुत ज्यादा भयावह नहीं तो अच्छी भी नहीं कह सकते। 2012-13 मे बलात्कार की संख्या थी 920, जो 2014-15 मे बढ़कर हो गई 1,088 अर्थात लगभग 18% की वृद्धि। स्पष्ट है, अपरोधों पर जितना नियंत्रण बीजेपी के साथ गठबंधन के समय था , वैसा नियंत्रण अब नहीं रहा। लालू के साथ गठबंधन का असर अपहरण की संख्या मे आए लगभग 45% से भी ज्यादा की वृद्धि मे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।  
निष्कर्ष यह कि नितीश का विकास का दावा मात्र एक ढ़ोल के सिवा और कुछ नहीं। यदि सचमुच विकास करने की क्षमता होती तो विकास दर इस तरह 14.5% के उच्च शिखर से लुढ़क कर 9% पर नहीं आ जाता। मात्र दो वर्षों मे इस  विकास दर का, पिछले 7 वर्षों के औसत विकास दर जो 12% था, उससे भी इतना ज्यादा नीचे आ जाना इस बात की पुष्टी करता है कि नितीश को मिला विकास पुरुष का क्रेडिट वास्तविकता मे सुशील मोदी को दिया जाना चाहिए था न कि नीतीश को।  
                                                                                   **** 



सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

प्रतीक्षा


              
                
                प्रतीक्षा


दूर, पहाड़ियों से उतरती,
मटकती चहकती
पतली काली सी वो राह
जाने क्यों इन दिनों
पड़ी है चुपचाप, निष्प्राण
न हिलती है, न डुलती है ।


देखता हूँ रोज ही उसे
बैठ ऊंचे टीले पर, सामने
ज्येष्ठ की धधकती धूप में भी
अनवरत, एक टक , बिना थके
कि शायद क्षितिज से कोई बिन्दु उभरे
कोई जाना पहचाना चेहरा या आवाज
आकार कहे, आओ चलो, घर चलें ।


पूछता हूँ रोज हीं रातों में
बादलों के पार, छुपते निकलते
तारों से, चंदा मामा से,
क्या मम्मी याद नहीं करतीं ?
पाँचवाँ दिन है आज छुट्टियों के
पापा को यह भी याद नहीं
सब तो जा चुके कबके, सिवा मेरे
दादी क्या तुम भी भूल गई ?


अब तो कक्षाओं मे लगे ब्लैकबोर्ड भी
पूछने लगे हैं प्रश्न
कब जाओगे, कोई आया क्यों नहीं ?
यज्ञ वेदिका जो कभी गूँजती थी ऋचाओं से
अब अग्नि प्रज्ज्वलित नहीं होती
भोजन की घंटी पर थाली ले
सरपट नहीं भागता अब कोई ।


अब तो बस पलास के ये पेड़
हरे बांस के झुरमुट, पीपल
आम के पेड़ों पर लगे मंजरों के ढेर
यही दोस्त हैं मेरे ;
जब भी उदास होता हूँ
बरगद से लिपट खूब रोता हूँ
गिलहरियाँ तो ताकती हैं सहमकर
पर बंदर खिलखिलाते है खुलकर ।


तैयार हूँ आज भी सुबह से हीं
कौन जाने कब आ जाए कोई
पहले दोपहर, फिर शाम ढली
वक्त चलता रहा
उम्मीदें यूं ही पिघलती रहीं ;
अब तो बगुले भी लौटने लगे हैं घर
हाँफता सूरज
खुश है छुट्टी पाकर ।


क्षितिज पहले लाल, फिर स्याह हो चला
सितारे फिर उभरे, चाँद फिर निकला
पर आज भी नहीं आया कोई ।


                                           ***       


  

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

बाबा भीम राव अंबेडकर का दर्द


कल्ह रात जब मैं गहरी नींद में सोया था, ऐसा लगा जैसे कोई ज़ोर ज़ोर से मुझे हिलाकर जगाने की कोशिश कर रहा है। रात के उस पहर में जब आँखें खोले न खुलती हों, बड़ी मुश्किल से मैंने आँख खोलकर देखने की कोशिश की, तो चौंक गया। डर के मारे घिग्घी बंध गयी। सामने सफ़ेद कपड़ों मे लिपटे एक बूढे से व्यक्ति  

                         

खड़े थे। बड़ी बड़ी सफ़ेद दाढ़ी, बर्फ की तरह सफ़ेद चेहरा, सिर से पाँव तक सफ़ेद कपड़े मे लिपटा हुआ शरीर, बर्फ के गोल टुकड़े की तरह जमी जमी आँखें। कुछ भी ऐसा न था कि मन को संतोष होता कि ये इसी लोक के प्राणी हैं। खौफ से फटी मेरी आँखों को देख ढॉढस बंधाते हुए बोले " घबराओ नहीं, मैं तुझे मारने या क्षति पहुँचाने नहीं आया हूँ।" मैंने डरते डरते पूछा, " महाराज, आप कौन हैं और मुझसे क्या चाहते हैं ?"
" मैं स्वर्ग लोक से आया हूँ और मेरा नाम भीमराव रामजी अंबेडकर है। क्या कभी मेरा यह नाम सुना है तुमने ?" उन्होने बर्फ से ठंढे एवं जमे स्वर मे पूछा ।
" महाराज, ऐसा नाम तो मैंने कभी नहीं सुना, हाँ इससे मिलता जुलता एक नाम जनता हूँ- बी आर अंबेडकर, जिन्होंने भारत के संविधान का निर्माण किया था " मैंने डरते डरते  कहा ।
" हाँ हाँ मै वही बी आर अंबेडकर हूँ तथा मै तुम्हारे पास एक विशेष प्रयोजन से आया हूँ " उन्होने विशेष नजरों से मुझे देखते हुए कहा ।

                           

" नहीं नहीं आप बी आर अंबेडकर नहीं हो सकते, उन्हें मैं पहचानता हूँ। इतनी बार मैं उनका चित्र पुस्तकों एवं अखबारों में देख चुका हूँ कि उन्हें न पहचानने का सवाल ही नहीं है। वे फुल पैंट पहनते थे, टाई लगाते थे, चश्मा भी लगाते थे, आप वो हो ही नहीं सकते " मैंने डरते डरते शंका प्रकट किया ।
" तुम सही पकड़े हो, पर इन चीजों की आवश्यकता सिर्फ पृथ्वी पर होती है, जहां मनुष्य का एक शरीर होता है, जिसे सजाने संवारने के लिए वह इन चीजों का प्रयोग करता है। पर स्वर्ग में तो जो भी आता है शरीर पृथ्वी पर ही छोड़ देता है, फिर सजाएगा क्या, सवांरेगा क्या ? इसीलिए तुम मुझे पहचान नहीं पा रहे हो " उन्होंने थोड़ा मुस्कुराते हुए कहा ।
उन्हें मुस्कुराते देख मुझे थोड़ी राहत तो महसूस हुई पर डर अभी भी बना हुआ था। मैंने हिचकिचाते हुए पूछा -
" महाराज, आप यहाँ क्यों आए हैं और मुझ से क्या चाहते हैं ?"
" मैं तुम्हारे पास एक खास प्रयोजन से आया हूँ, पर इससे पहले ये बताओं कि क्या बिहार मे चुनाव होने वाला है? ", उन्होंने स्थिर आँखों से मुझे देखते हुए पूछा। 
" हाँ महाराज, चुनाव होने वाला तो है, पर आपको कैसे पता लगा? " 
" अभी सिर्फ दो दिन पहले एक व्यक्ति ताजा ताजा मर कर  स्वर्ग लोक में आया है। उसी ने बताया। उसने यह भी बताया कि असली मुक़ाबला दो गठबंधनों के बीच है, एक का नेतृत्व नरेंद्र मोदी नामका कोई सिरफिरा है, जो कहता है सभी समस्याओं के निदान के लिए एक ही जड़ी बूटी है और उस जड़ी बूटी का नाम है-"विकास", वो कर रहा है और दूसरी ओर जो गठ बंधन है उसका नेतृत्व दो लोग कर रहे हैं, एक का नाम है नितीश कुमार और दूसरे का नाम है लालू यादव। "
" आप तो ऐसा लगता है पूरी जानकारी लेकर आए हैं महाराज, पर क्या आपको मालूम है, नितीश और लालू दोनों आप ही के चेले हैं, क्योंकि दोनों अगड़ा - पिछड़ा की राजनीति करते हैं? " मैंने उन्हें खुश करने के मकसद से कहा।
" हाँ हाँ मालूम है, पर तुम मुझे यह बताओ कि इस चुनाव मे किसे वोट दोगे, नितीश-लालू गठ बंधन को या मोदी गठबंधन को ? "
मैं उनके चेहरे को गौड़ से देखने लगा, यह पढ़ने की कोशिश करने लगा कि  आखिर उनकी मंशा क्या है, उनके मन मे क्या है ? क्यों ऐसा प्रश्न कर रहे हैं ? पर उनके एकदम सफ़ेद भावविहीन चेहरे को देख कुछ भी समझने में असमर्थ था। अत: कहीं गलत जबाब देकर फँस न जाऊँ, मैंने डरते डरते कहा -
"महाराज, किसको वोट देना है, इसे गुप्त रखने का अधिकार आपने ही तो संविधान मे दिया है, फिर मुझसे क्यों जानना चाहते हैं ?"
" क्योंकि वर्षों पूर्व मेरे हाथों एक बहुत बड़ा अधर्म हो गया था, मैं उसी गलती को सुधारना चाहता हूँ और इसके लिए मेरा यह जानना जरूरी है कि लोग किसे वोट दे रहे हैं। " उन्होने गहरी नजरों से मुझे देखते हुए कहा।
उनकी आँखों मे स्पष्ट रूप से एक पीड़ा झलक रही थी। मैंने महसूस किया,जबाब देना जरूरी है, जबाब नहीं देने पर शायद कुछ खतरा भी हो सकता है। पर सवाल यह था कि क्या जबाब दूँ ? ऐसा क्या कहूँ कि बाबा खुश हो जाएँ और यहाँ से चले जाएँ । मैंने दिमाग लगाया। बाबा ने संविधान में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया था, अत: यदि मैं यह कहूँगा कि मैं नितीश-लालू गठबंधन को वोट दूंगा, तो बाबा अवश्य खुश हो जाएंगे।
मैंने कहा, " अभी तक तो कुछ निश्चित नहीं है, पर ज्यादा उम्मीद है नितीश-लालू गठबंधन को ही दूंगा। "
" क्यों, नितीश-लालू को क्यों ?"
" क्योंकि नितीश की छवि विकास पुरुष की है और बिहार मे कुछ विकास करके भी दिखाया है।"
" पर यह विकास तो नितीश ने तब किया था जब वह बीजेपी के साथ थी, बीजेपी से हटने के बाद तो विकास दर लगभग 12% से घटकर 9% के आस पास आ गया है। अपहरण एवं अपराध का ग्राफ भी काफी बढ़ा है। दूसरी ओर अब तो वो लालू के साथ है, जिसके शासन मे बिहार का जंगल राज काफी प्रसिद्ध हुआ था। नितीश की पार्टी तो सिर्फ 101 सीट पर ही लड़ रही है, इसलिए उसे सरकार चलाने के लिए तो हर हाल मे लालू पर निर्भर रहना होगा, और लालू पर निर्भर होने का मतलब है जंगल राज, विकास कैसे होगा? " बाबा ने पहली बार मुसकुराते हुए कहा, ऐसा लगा जैसे मेरा टेस्ट ले रहे हों।
मैं आश्चर्य मे पड़ गया। बाबा ये क्या बोल रहे हैं ? लालू और नितीश दोनों जातिवाद, अगड़ा पिछड़ा एवं आरक्षण की बात करते हैं, जिसे बाबा ने ही संविधान मे जगह दिलवाया था, इस नाते दोनों बाबा के ही चेले तो हुए, फिर भी बाबा उनके विरुद्ध क्यों बोल रहे हैं । मैंने डरते डरते कहा -
" क्या बाबा, आप ऐसा क्यों बोल रहे हैं ? नितीश और लालू दोनों आप ही के तो चेले हैं। दोनों आप ही के बताए मार्ग पर तो चल रहे हैं। आरक्षण किसी भी कीमत पर खत्म न होने दूंगा, इस पर कोई चर्चा भी नहीं होने दूंगा- यही बात तो वे कह रहे हैं, जो आपको भी प्रिय है।"
बाबा ठहाका लगा कर हंस पड़े। ऐसा लगा जैसे किसी सुरंग से रुक रुक कर एक डरावनी सी आवाज आ रही हो।
" अच्छा !" व्यंग भरी नजरों से मुझे देखते हुए बोले, " क्या तुम संविधान मे आरक्षण कितने दिनों तक लागू रहेगा, इस विषय मे पढे हो ?"
" संविधान तो मैंने नहीं पढ़ा है बाबा, पर जहा तक मुझे मालूम है आरक्षण का प्रावधान शायद 10 वर्षों के लिए किया गया था। उसके बाद जो भी सरकार केंद्र मे आई, उसने इसकी अवधि बढ़ाने का काम किया। "
" तुम जानते हो संविधान मे मैंने 10 वर्ष का प्रावधान क्यों किया था?" ऐसा लगा जैसे बाबा दूर, बहुत दूर किसी यादों की दुनियाँ मे खो गए हों। फिर खुद ही इस प्रश्न का जबाब भी दे डाला-
" क्योंकि मेरी आत्मा पर एक बहुत बड़ा बोझ था। मैंने आरक्षण का प्रावधान संविधान की मूल आत्मा,"समानता का सिद्धान्त " Principle of Equality के साथ छेड़-छाड़ कर किया था। कानून की नजर मे सभी नागरिक बराबर हैं, सभी नागरिकों को समान अवसर मिलना चाहिए, सबों के अधिकार बराबर हैं- यही है समानता का अधिकार। विश्व के सभी प्रजातांत्रिक  देशों के संविधान का आधार स्तम्भ यही है, क्योंकि सरकारें यदि अपने नागरिकों के साथ भेद भाव करेंगी, समान अधिकार एवम समान अवसर  नहीं देंगी, तो उस समाज मे आज न कल मार काट, दंगा, हत्याएं और इसी तरह की कानून व्यवस्था की समस्याएँ  खड़ी  होनी अवश्यंभावी  है। इसी लिए मैंने आरक्षण का प्रावधान सिर्फ 10 वर्षों के लिए किया था । "
              Image result for reservation agitation in india

मैं कुछ समझ नहीं पाया कि बाबा आखिर किस छेड़ छाड़ की बात कर रहे है, उनका तात्पर्य क्या है, अत: डरते डरते पूछा -
"आप किस छेड़छाड़ की बात कर रहे हैं महाराज? आखिर आपकी आत्मा पर किस बात का बोझ है?"
" संविधान मे कुछ खास वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान, इस आधार पर कि ये जातियाँ सदियों से पिछड़ी रही हैं, पूर्व मे इन जातियों को समानता का अधिकार प्राप्त नहीं था, इसलिए वर्तमान मे इन जातियों को औरों से बढ़कर ज्यादा अधिकार देना, अर्थात भूतकाल के असमानता को ठीक करने के लिए वर्तमान मे कुछ वर्गों को असमानता का अधिकार देना, यही है  " समानता के अधिकार " Principle of Equality से छेड़ -छाड़ और यही अधर्म मैंने किया था। मेरी आत्मा पर इसी बात का बोझ है। "
" पर अनुसूचित जातियों, अति पिछड़ों को समाज के अन्य वर्गों के बराबर लाने के लिए आरक्षण देना तो न्यायोचित ही है, अन्यथा वे बराबरी मे आएंगे कैसे? "
" हाँ, पहले मैं भी यही सोंचता था। पर अब मेरी समझ मे ये आ चुका है कि मैंने एक बहुत हीं भयंकर भूल की थी। पिछड़ी जतियों को यदि बराबरी मे लाना है, तो उसके लिए सबसे जरूरी है कि इन जातियों मे पढे लिखे लोगों का अनुपात तेजी से बढ़े ताकि वे सवर्ण जातियों के पढे लिखे वर्ग के अनुपात की बराबरी कर सकें, या कम से कम उनके आस पास हीं आ सकें। आज के युग मे विद्या अर्थात शिक्षा ही गरीबी एवं सभी प्रकार के पिछड़ेपन से लड़ने का एक सबसे बड़ा ब्रह्मास्त्र है । और इसे समझते हुए भी इस पर ज़ोर ना देकर, पिछड़ी जातियों की पढ़ाई के लिए कोई ठोस एवं कारगर व्यवस्था ना कर, मैंने विशेष ज़ोर सिर्फ आरक्षण पर दिया, यही मेरी सबसे बड़ी भूल थी। "
" पर आपने शिक्षण संस्थाओं मे भी आरक्षण का प्रावधान तो किया ही है। इसके कारण निचले तबके के बच्चे भी आज बड़ी संख्या मे पढ़ रहे है। " मैंने विरोध जताते हुए कहा।
"हाँ, सही कह रहे हो पर इसका लाभ भी वही लोग उठा रहे हैं जो आर्थिक रूप से पहले से ही सक्षम हैं। एक गरीब मुशहर का बेटा, जो पुस्तकें खरीदने की भी क्षमता नहीं रखता,वह ज्यादा से ज्यादा अपने बेटे को मुफ्त स्कूली शिक्षा दे सकता है, उससे ऊपर पढाने की बात तो वह सोंच भी नहीं सकता। इसके लिए उसे पढ़ाई आधारित आर्थिक बैशाखी प्रदान करने के साथ साथ, पढ़ाई कैसे उसकी जिंदगी बदल सकती है अर्थात एक सामाजिक चेतना जगाने की भी आवश्यकता थी,जो मैं नहीं कर पाया। इसके अलावा,  इन जातियों मे लागू की गई सरकारी योजनाएँ कितनी कारगर सिद्ध हो रही हैं, शिक्षित वर्ग का अनुपात बढ़ रहा है या नहीं, बढ़ रहा है तो कितना बढ़ रहा है, आदि की वार्षिक जांच पड़ताल की भी आवश्यकता थी, जिसका प्रावधान दुर्भाग्यवश मैं संविधान मे नहीं कर सका। " 
ऐसा लग रहा था जैसे बाबा फिर से संविधान निर्माण की यादों मे खो गए हों। आंखेँ, आधी बंद, आधी खुली, चेहरे पर कई तरह के भाव आ रहे थे, जा रहे थे। फिर अचानक गुस्से मे तमतमाई आवाज मे बोल पड़े -
" जानते हो, जब मैंने नौकरियों मे आरक्षण का प्रावधान किया था, तो मेरी सोंच यह थी कि आरक्षण कोटा से नौकरी पाये लोग अपने समाज की सेवा करेंगे, क्योंकि उन्हें नौकरी अपने पूरे समाज के कोटे पर प्राप्त हुई है, अत: उनका ये दायित्व बनता है कि वे अपने अनपढ़ भाइयों को शिक्षा प्राप्त करने मे मदद करें। मेरी यह सोंच थी कि वे दलितों तथा पिछड़े वर्ग के अपने भाइयों मे पढ़ाई के प्रति जन जागृति लाएँगे, इस कार्य मे उनकी सहायता करेंगे। पर अफसोस मैं कितना गलत था। सब के सब नौकरी मिलते ही अपने भाई बंधुओ को भूल गए। आज दलित नौकरशाहों की स्थिति भी किसी सवर्ण नौकरशाह से भिन्न नहीं है। वे भी बस एक ही काम मे रात दिन लिप्त हैं,  कि कैसे ज्यादा से ज्यादा पैसा बनाया जाए। इतना जल्द वे चोरी, चमारी, घूसख़ोरी मे लिप्त हो जाएंगे, कभी सोंचा भी ना था। आज तो वे अपने दलित विरादरी के लोगों से मिलने से भी कतराते हैं। क्या इसी के लिए मैंने संविधान मे समानता के अधिकार के साथ छेड़-छाड़ किया था ?"

Image result for reservation agitation burning india


 "इस छेड़ छाड़ के कारण स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि आज लगभग सभी जातियाँ अपने लिए आरक्षण की मांग कर रही हैं। गुजरात मे तो अब ब्राह्मण भी अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं, आर्थिक रूप से सम्पन्न पटेल तो आंदोलन कर ही रहे हैं। राजस्थान मे, हरियाणा मे, धीरे धीरे यह आग पूरे भारत वर्ष मे फैलती जा रही है। मैंने कल्पना भी नहीं किया था कि आरक्षण के कारण देश मे ऐसी भयंकर आग की लपटें उठेंगी। "



                 
" हाँ महाराज, ये तो है। आज भारत मे कोई ऐसी जाती नहीं है जो आरक्षण का लाभ लेना नहीं चाहती। ये तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का कि जिसने सभी प्रकार के आरक्षण का दायरा 50% पर सीमित कर दिया है, वरना इन नेताओं का यदि वश चलता तो ये 100% आरक्षण देने मे भी नहीं हिचकते।अब तो ये पूरी जनसंख्या मे जातियों के अनुपात अनुसार आरक्षण की बात करने लगे हैं। " बहुत दबाने के बाद भी मैं अपने विचारों को प्रकट करने से रोक नहीं पाया।

Image result for reservation agitation in india

                  
" हाँ, यही तो भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात है। अफसोस है, अफसोस है, मैंने ये क्या कर दिया, मेरा भारत आज एक सुलगते हुए एटम बम के मुहाने पर बैठा है, कब फट जाए कोई नहीं जनता। मैंने भारत वर्ष को जातिवाद की आग मे झोंकने का काम किया है। हाय रे दैव, मैं दोषी हूँ, सिर्फ मैं दोषी हूँ इस पाप का।"
बाबा की गोल गोल वर्फ जमी आँखों से आँसू टपक रहे थे। ऐसा लगा जैसे उनके अंदर के पश्चाताप की गर्मी आँखों के रास्ते पिघल पिघल कर जमीन पर गिर रहा हो। बाबा को इस तरह अधीर एवं व्याकुल होते देख मैं भी अपने आप को रोक ना सका। मेरी आँखें भी भर आयीं। बाबा इस बात से व्यथित थे कि जिस हिंदुस्तान को उन्होने इतने नाज़ों से , इतने अरमानों से सजाया संवारा था, वो आज आरक्षण की आग मे झुलस रहा है। मैंने बाबा को ढांढस बांधते हुए कहा -
" अब जो होना था वो तो हो चुका, पर आगे इसे ठीक करने का क्या रास्ता है महाराज ? "
" बहुत मुश्किल है, बहुत मुश्किल है इसे ठीक करना। जानते हो, लालू और नितीश जैसे लोग जिन्हें तुम मेरा चेला बता रहे हो, वही मेरे सबसे बड़े दुश्मन हैं। ये लोग अपने अपने स्वार्थ की रोटी सेंक रहे हैं। जात-पात एवं आरक्षण के नाम पर राजनीति कर ये पिछड़ी जातियों के लोगों को मूर्ख बना रहे हैं। इनका मूल उद्देश्य है, आरक्षण चली जाएगी इस बात का डर दिखाकर समाज के दलित एवं पिछड़े वर्गों का वोट प्राप्त कर सत्ता हासिल करना और एक बार जब सत्ता हासिल हो जाए तोअरबों खरबों की रकम घूस एवं अन्य भ्रष्ट तरीके से अपने एवं अपने परिवार के लिए हासिल करना। लालू तो इसी कारण जेल भी जा चुके हैं और अभी भी जमानत पर घूम रहे हैं। नितीश का भी नाम उस घोटाले से प्राप्त रकम के बँटवारे मे आया था, पर जैसे तैसे सीबीआई ने उसे दबा दिया। नितीश और लालू ही क्यों, आज हिंदुस्तान मे बीजेपी सहित किसी पार्टी मे इतनी हिम्मत नहीं है जो यह कह सके कि देश मे आरक्षण के मुद्दे पर लगी आग के कारण इसकी समीक्षा अनिवार्य है। " बाबा बहुत ही व्यथित स्वर में कुछ सोंचते हुए बोले।
Image result for reservation agitation in india

" आप ठीक कह रहे हैं महाराज, यहाँ एक संस्था है- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ । उसके सरसंघ चालक मोहन भागवत ने कुछ दिनों पहले देश मे बढ़ते आरक्षण की इसी आग को देख, एक वयान दिया था कि आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा होनी चाहिए, ताकि यह पता चल सके कि अपने उद्देश्य पूर्ति मे यह व्यवस्था कहाँ तक एवं कितनी सफल साबित हुई है। पर जानते हैं महाराज, लगभग देश की सभी पार्टियां उनके वयान पर ऐसे लूझ पड़ीं जैसे किसी मरे व्यक्ति के लाश पर गिद्ध कूद पड़ते हैं ।" मैंने बाबा की बातों का समर्थन करते हुए कहा।
" जानते हो, एक मरीज भी बेड पर तभी तक पड़ा रहता है जब तक वह डाक्टरी इलाज से ठीक न हो जाए। उसका रोम रोम इस बात का इंतजार करता रहता है कि कैसे वह ठीक होकर फिर से अपने पैरों पर जल्द से जल्द चलना शुरू करे। पर लालू, नितीश, मुलायम, कांग्रेस एवं मायावती जैसी पार्टियां दलितों, पिछड़ों को हमेशा हमेशा के लिए बेड पर ही सुलाये रखना चाहती हैं। इनका बस चले तो संविधान मे मैंने आरक्षण के रूप मे जो अस्थायी व्यवस्था की थी, उसे ये उसे हमेशा हमेशा के लिए एक स्थायी प्रावधान बना देंगे । लालू जैसे नेता जिनके मात्र नौवाँ पास बच्चे  बिना कोई काम किए 50 लाख की कार एवं डेढ़ करोड़ से ज्यादा की संपत्ति के स्वामी हैं, वे भला दलितों, पिछड़ों को अपने पैरों पर क्यों खड़ा होने देंगे ? इनका हित तो इन्हें हमेशा हमेशा के लिए आरक्षण रूपी नशे का इंजेक्शन देकर सुलाये रखने मे हीं है। "
बाबा बोलते बोलते रुक गए और फिर मेरी ओर गहरी नजरों से देखने लगे। मैंने सकुचाते हुए पूछा-
" पर बाबा, आप मुझसे क्या चाहते हैं, मेरे पास आपके आने का प्रयोजन क्या है? "
बाबा की नजरों मे पहली बार मैंने एक चमक देखी। ऐसा लगा जैसे उनके अंदर का द्वंद शांत हो चुका है और वे अब संविधान निर्माण की यादों से बाहर आ चुके हैं। उन्होने  बड़े शांत भाव से कहा-
" बड़े सोंच विचार के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि आरक्षण के इस बढ़ते आग की ज्वाला से देश को बचाने के लिए सिर्फ तीन ही रास्ते बचे हैं और ये तीनों रास्ते एक दूसरे के पूरक हैं । पहला तो ये, कि अब सुप्रीम कोर्ट ही इसकी समीक्षा की पहल करे। शिक्षा के मान दंड पर दलित एवं पिछड़ी जातियाँ सवर्णों की तुलना मे कितना गैप भरने मे सफल रही हैं, अभी भी उन्हें आरक्षण रूपी बैशाखी की आवश्यकता है या नहीं, इन सारी बातों की समीक्षा सुप्रीम कोर्ट ही करे क्योंकि यह काम कोई भी राजनीतिक पार्टी चाह कर भी नहीं कर पाएगी। सभी पार्टियों को इस बात का डर है कि जैसे ही वे आरक्षण पर समीक्षा की बात करेंगे, विरोधी पार्टियां मतदाताओं को उनके विरुद्ध भड़काने मे लग जाएंगी  और उनका सब से ज्यादा नुकसान हो जाएगा। इसलिए अब सुप्रीम कोर्ट को ही आगे बढ़ कर इस मामले को हाथ मे लेना चाहिए तथा समीक्षा प्रक्रिया का प्रारम्भ करना चाहिए।  "
" हाँ महाराज, आपकी बात थोड़ी कड़वी तो है, पर व्यावहारिक है, क्योंकि राजनीतिक पार्टियों से इस विषय मे कुछ भी उम्मीद करना व्यर्थ है। " मैंने बाबा की बातों से सहमति प्रकट करते हुए कहा। वास्तविकता यह थी कि बाबा के सुझाए रास्ते के अलावा और कोई  रास्ता बचा भी नहीं है।
ऐसा लगा जैसे बाबा अपनी बातों का मुझ पर कितना प्रभाव पड़ रहा है इसका आकलन कर रहे हों। मेरी ओर गहरी नजर से देखते हुए बोले -
"ये तो हुआ कानूनी रास्ता पर एक और दूसरा रास्ता भी है, जो निर्भर करता है देश की केंद्र और राज्य सरकारों पर, और वो है  देश का तेज, और तेज गति से आर्थिक एवं सामाजिक विकास ताकि देश के दलित, पिछड़ा एवं अन्य सभी जातियों के गरीबों के हाथ मे भी अतिरिक्त आम्दनी, अतिरिक्त आय के  स्रोत आ सके। इतनी आम्दनी हो सके  कि वे न सिर्फ अपने परिवार का अच्छी तरह भरण पोषण कर सकें, बल्कि अपने बच्चों को उच्च शिक्षा भी दिला सकें।  कहते हैं पैसा आने पर आदमी का विचार, रहन सहन एवं नजरिया भी बादल जाता है। इससे गरीबों के हाथ मे न सिर्फ पैसा आएगा बल्कि अपने बच्चों को पढाना आवश्यक है, नजरिया भी बदलेगा।"
" हाँ महाराज, आप ठीक कहते है। हमारे देश के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भी यही कहते हैं। उनका तो यहाँ तक कहना है कि देश की सभी समस्याओं के समाधान के लिए बस एक ही जड़ी बूटी है, और उस जड़ी बूटी का नाम है- विकास । अपने हर भाषणों मे, देश हो या विदेश, हर जगह, हर मंच पर उनका एक ही मंत्र है, विकास, विकास और विकास। " ऐसा लग रहा था जैसे बाबा मेरे अंदर की  छुपी भावनाओं को कुरेद कुरेद कर बाहर  निकाल रहे हों।  बाबा मेरी बातें सुन हंस पड़े और बोले -
" जानते हो, इसी लिए मैं इस व्यक्ति को सिरफिरा कहता हूँ क्योंकि ये जहां जाता है सिर्फ विकास की बात करता है। अमेरिका, जापान, चीन, जर्मनी, कनाडा, आस्ट्रेलिया , फ्रांस , हर जगह, जहां भी वो जाता है, न सिर्फ विदेशी सरकारों बल्कि परवासी भारतियों को भी प्रेरित करता है कि वे भारत मे निवेश करें ताकि भारत का विकास हो सके। रात दिन इसका बस एक ही सपना है कि भारत कैसे विकसित देशों कि श्रेणी मे खड़ा हो जाए।   हम लोगों के जमाने मे यदि ऐसा प्रधान मंत्री होता, तो शायद मुझे आरक्षण का प्रावधान करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।" बाबा ने मेरी आँखों मे आँखें डाल मुस्कुराते हुए कहा।
"पर अभी भी आपने मेरे पास आने का क्या प्रयोजन है, यह नहीं बताया बाबा ! " मेरी उत्सुकता लगातार बढ़ती ही जा रही थी। मैं अपने आप को रोक न सका।
" बताता हूँ, बताता हूँ, इतने अधीर क्यों हो रहे हो ? अच्छा यह बताओ कि तुम एक शिक्षक हो, ऊपर से लेखक भी हो, क्या तुम दलितों एवं पिछड़े वर्ग के बच्चों की पढ़ाई तथा उनमे एक सामाजिक चेतना जागृति मे कुछ मदद कर सकते हो ? " उन्होने थोड़ा गंभीर होते हुए पूछा।

                            

" आप किस तरह की मदद चाहते हैं बाबा, मैं तो अब रिटायर्ड भी हो चुका हूँ, मैं क्या सेवा कर सकता हूँ । " मैंने थोड़ा हिचकिचाते हुए पूछा ।
" तब तो और भी अच्छा है। यही तो मैं चाहता हूँ कि देश के रिटायर्ड लोग, चाहे वे किसी भी क्षेत्र के हों, समाज के दलितों एवं पिछड़े वर्ग के लोगों को थोड़ा समय निकाल कर पढ़ाएँ  तथा उनमे पढ़ाई के प्रति एक सामाजिक चेतना का सृजन करें। सक्रिय नौकरी मे लगे लोग भी समय निकाल कर यदि इस कार्य मे हांथ बंटा सकें तब तो और भी अच्छा, वरना रिटायर्ड लोगों को ही इसमे नेतृत्व प्रदान करना होगा। देश के दलितों, पिछड़े वर्ग के अपने भाई बंधुओं को न सिर्फ शिक्षित करना बल्कि उनमे एक सामाजिक चेतना जगाना, यही है वो तीसरा रास्ता जिसकी बात मैं कर रहा था।"
                          
मैं गहरी सोंच मे डूब गया। बाबा की बातें, जो सुनने मे तो अच्छी लगती हैं, पर क्या धरातल पर उतारना संभव है। सभी तो अपने अपने मे मगन हैं। किसको इतनी पड़ी है जो दलितों या पिछड़ों के लिए समय निकाल उनकी बस्ती मे जा पाएगा। परंतु थोड़ा और गहन सोंच विचार करने पर लगा, यह एक बहुत ही नवीन तथा क्रांतिकारी विचार है। देश मे ऐसे लाखों करोड़ों सेवा निवृत लोग हैं जो यूं ही समय बिता रहे हैं। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा कि सेवा निवृत के बाद करें क्या? वे तो बस बैठें हैं कि जैसे कोई आवे और उनसे कहे " चलो पढ़ाएँ, देश बनाएँ " । जरूरत है तो बस एक समर्पित सिरफिरों की टोली की, जो इसे देश के कोने कोने मे राष्ट्रीय स्तर तक इस योजना को ले जा सकें और ऐसे लोगों को इसमे शामिल कर सकें। जब प्रधान मंत्री के एक आह्वान पर देश के कोने कोने मे सफाई अभियान चल पड़ा है, तो कोई कारण नहीं है कि प्रधान मंत्री यदि सेवा निवृत, पर कुछ कर गुजरने के लिए बेचैन लोगों की टोली का आह्वान करें तो, देश मे दलितों एवं पिछड़ों की शिक्षा मे अपना योगदान देने के लिए वे  आगे न आयें। देखते देखते कुछ ही वर्षों मे देश शिक्षा के क्षेत्र मे विश्व के अन्य देशों की बराबरी कर सकता है।  
" बाबा, मैं आपके विचारों से सहमत हूँ। आप जैसा कहेंगे वैसा ही होगा । बाबा मैं पहले भी आपके साथ था, अब भी आपके साथ हूँ।" मैं काफी उत्तेजित हो चुका था, अत: लगभग हाँफते हुए कहा।
तभी ऐसा लगा जैसे कोई ज़ोर ज़ोर से मुझे झकझोड रहा है। पत्नी की आवाज कानों मे सुनाई पडी -
" अजी उठिए, उठिए ना,  क्या बाबा बाबा  बड़बड़ा रहे हैं ? रात भर सपना देख रहे थे क्या ? " आँख खुली तो देखा सुबह हो चुकी थी।