" मैं स्वर्ग लोक से आया हूँ और मेरा नाम भीमराव रामजी अंबेडकर है। क्या कभी मेरा यह नाम सुना है तुमने ?" उन्होने बर्फ से ठंढे एवं जमे स्वर मे पूछा ।
" महाराज, ऐसा नाम तो मैंने कभी नहीं सुना, हाँ इससे मिलता जुलता एक नाम जनता हूँ- बी आर अंबेडकर, जिन्होंने भारत के संविधान का निर्माण किया था " मैंने डरते डरते कहा ।
" नहीं नहीं आप बी आर अंबेडकर नहीं हो सकते, उन्हें मैं पहचानता हूँ। इतनी बार मैं उनका चित्र पुस्तकों एवं अखबारों में देख चुका हूँ कि उन्हें न पहचानने का सवाल ही नहीं है। वे फुल पैंट पहनते थे, टाई लगाते थे, चश्मा भी लगाते थे, आप वो हो ही नहीं सकते " मैंने डरते डरते शंका प्रकट किया ।
" तुम सही पकड़े हो, पर इन चीजों की आवश्यकता सिर्फ पृथ्वी पर होती है, जहां मनुष्य का एक शरीर होता है, जिसे सजाने संवारने के लिए वह इन चीजों का प्रयोग करता है। पर स्वर्ग में तो जो भी आता है शरीर पृथ्वी पर ही छोड़ देता है, फिर सजाएगा क्या, सवांरेगा क्या ? इसीलिए तुम मुझे पहचान नहीं पा रहे हो " उन्होंने थोड़ा मुस्कुराते हुए कहा ।
उन्हें मुस्कुराते देख मुझे थोड़ी राहत तो महसूस हुई पर डर अभी भी बना हुआ था। मैंने हिचकिचाते हुए पूछा -
" मैं तुम्हारे पास एक खास प्रयोजन से आया हूँ, पर इससे पहले ये बताओं कि क्या बिहार मे चुनाव होने वाला है? ", उन्होंने स्थिर आँखों से मुझे देखते हुए पूछा।
" अभी सिर्फ दो दिन पहले एक व्यक्ति ताजा ताजा मर कर स्वर्ग लोक में आया है। उसी ने बताया। उसने यह भी बताया कि असली मुक़ाबला दो गठबंधनों के बीच है, एक का नेतृत्व नरेंद्र मोदी नामका कोई सिरफिरा है, जो कहता है सभी समस्याओं के निदान के लिए एक ही जड़ी बूटी है और उस जड़ी बूटी का नाम है-"विकास", वो कर रहा है और दूसरी ओर जो गठ बंधन है उसका नेतृत्व दो लोग कर रहे हैं, एक का नाम है नितीश कुमार और दूसरे का नाम है लालू यादव। "
" आप तो ऐसा लगता है पूरी जानकारी लेकर आए हैं महाराज, पर क्या आपको मालूम है, नितीश और लालू दोनों आप ही के चेले हैं, क्योंकि दोनों अगड़ा - पिछड़ा की राजनीति करते हैं? " मैंने उन्हें खुश करने के मकसद से कहा।
" हाँ हाँ मालूम है, पर तुम मुझे यह बताओ कि इस चुनाव मे किसे वोट दोगे, नितीश-लालू गठ बंधन को या मोदी गठबंधन को ? "
मैं उनके चेहरे को गौड़ से देखने लगा, यह पढ़ने की कोशिश करने लगा कि आखिर उनकी मंशा क्या है, उनके मन मे क्या है ? क्यों ऐसा प्रश्न कर रहे हैं ? पर उनके एकदम सफ़ेद भावविहीन चेहरे को देख कुछ भी समझने में असमर्थ था। अत: कहीं गलत जबाब देकर फँस न जाऊँ, मैंने डरते डरते कहा -
"महाराज, किसको वोट देना है, इसे गुप्त रखने का अधिकार आपने ही तो संविधान मे दिया है, फिर मुझसे क्यों जानना चाहते हैं ?"
" क्योंकि वर्षों पूर्व मेरे हाथों एक बहुत बड़ा अधर्म हो गया था, मैं उसी गलती को सुधारना चाहता हूँ और इसके लिए मेरा यह जानना जरूरी है कि लोग किसे वोट दे रहे हैं। " उन्होने गहरी नजरों से मुझे देखते हुए कहा।
उनकी आँखों मे स्पष्ट रूप से एक पीड़ा झलक रही थी। मैंने महसूस किया,जबाब देना जरूरी है, जबाब नहीं देने पर शायद कुछ खतरा भी हो सकता है। पर सवाल यह था कि क्या जबाब दूँ ? ऐसा क्या कहूँ कि बाबा खुश हो जाएँ और यहाँ से चले जाएँ । मैंने दिमाग लगाया। बाबा ने संविधान में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया था, अत: यदि मैं यह कहूँगा कि मैं नितीश-लालू गठबंधन को वोट दूंगा, तो बाबा अवश्य खुश हो जाएंगे।
मैंने कहा, " अभी तक तो कुछ निश्चित नहीं है, पर ज्यादा उम्मीद है नितीश-लालू गठबंधन को ही दूंगा। "
" क्यों, नितीश-लालू को क्यों ?"
" क्योंकि नितीश की छवि विकास पुरुष की है और बिहार मे कुछ विकास करके भी दिखाया है।"
" पर यह विकास तो नितीश ने तब किया था जब वह बीजेपी के साथ थी, बीजेपी से हटने के बाद तो विकास दर लगभग 12% से घटकर 9% के आस पास आ गया है। अपहरण एवं अपराध का ग्राफ भी काफी बढ़ा है। दूसरी ओर अब तो वो लालू के साथ है, जिसके शासन मे बिहार का जंगल राज काफी प्रसिद्ध हुआ था। नितीश की पार्टी तो सिर्फ 101 सीट पर ही लड़ रही है, इसलिए उसे सरकार चलाने के लिए तो हर हाल मे लालू पर निर्भर रहना होगा, और लालू पर निर्भर होने का मतलब है जंगल राज, विकास कैसे होगा? " बाबा ने पहली बार मुसकुराते हुए कहा, ऐसा लगा जैसे मेरा टेस्ट ले रहे हों।
मैं आश्चर्य मे पड़ गया। बाबा ये क्या बोल रहे हैं ? लालू और नितीश दोनों जातिवाद, अगड़ा पिछड़ा एवं आरक्षण की बात करते हैं, जिसे बाबा ने ही संविधान मे जगह दिलवाया था, इस नाते दोनों बाबा के ही चेले तो हुए, फिर भी बाबा उनके विरुद्ध क्यों बोल रहे हैं । मैंने डरते डरते कहा -
" क्या बाबा, आप ऐसा क्यों बोल रहे हैं ? नितीश और लालू दोनों आप ही के तो चेले हैं। दोनों आप ही के बताए मार्ग पर तो चल रहे हैं। आरक्षण किसी भी कीमत पर खत्म न होने दूंगा, इस पर कोई चर्चा भी नहीं होने दूंगा- यही बात तो वे कह रहे हैं, जो आपको भी प्रिय है।"
बाबा ठहाका लगा कर हंस पड़े। ऐसा लगा जैसे किसी सुरंग से रुक रुक कर एक डरावनी सी आवाज आ रही हो।
" अच्छा !" व्यंग भरी नजरों से मुझे देखते हुए बोले, " क्या तुम संविधान मे आरक्षण कितने दिनों तक लागू रहेगा, इस विषय मे पढे हो ?"
" संविधान तो मैंने नहीं पढ़ा है बाबा, पर जहा तक मुझे मालूम है आरक्षण का प्रावधान शायद 10 वर्षों के लिए किया गया था। उसके बाद जो भी सरकार केंद्र मे आई, उसने इसकी अवधि बढ़ाने का काम किया। "
" तुम जानते हो संविधान मे मैंने 10 वर्ष का प्रावधान क्यों किया था?" ऐसा लगा जैसे बाबा दूर, बहुत दूर किसी यादों की दुनियाँ मे खो गए हों। फिर खुद ही इस प्रश्न का जबाब भी दे डाला-
" क्योंकि मेरी आत्मा पर एक बहुत बड़ा बोझ था। मैंने आरक्षण का प्रावधान संविधान की मूल आत्मा,"समानता का सिद्धान्त " Principle of Equality के साथ छेड़-छाड़ कर किया था। कानून की नजर मे सभी नागरिक बराबर हैं, सभी नागरिकों को समान अवसर मिलना चाहिए, सबों के अधिकार बराबर हैं- यही है समानता का अधिकार। विश्व के सभी प्रजातांत्रिक देशों के संविधान का आधार स्तम्भ यही है, क्योंकि सरकारें यदि अपने नागरिकों के साथ भेद भाव करेंगी, समान अधिकार एवम समान अवसर नहीं देंगी, तो उस समाज मे आज न कल मार काट, दंगा, हत्याएं और इसी तरह की कानून व्यवस्था की समस्याएँ खड़ी होनी अवश्यंभावी है। इसी लिए मैंने आरक्षण का प्रावधान सिर्फ 10 वर्षों के लिए किया था । "
मैं कुछ समझ नहीं पाया कि बाबा आखिर किस छेड़ छाड़ की बात कर रहे है, उनका तात्पर्य क्या है, अत: डरते डरते पूछा -
"आप किस छेड़छाड़ की बात कर रहे हैं महाराज? आखिर आपकी आत्मा पर किस बात का बोझ है?"
" संविधान मे कुछ खास वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान, इस आधार पर कि ये जातियाँ सदियों से पिछड़ी रही हैं, पूर्व मे इन जातियों को समानता का अधिकार प्राप्त नहीं था, इसलिए वर्तमान मे इन जातियों को औरों से बढ़कर ज्यादा अधिकार देना, अर्थात भूतकाल के असमानता को ठीक करने के लिए वर्तमान मे कुछ वर्गों को असमानता का अधिकार देना, यही है " समानता के अधिकार " Principle of Equality से छेड़ -छाड़ और यही अधर्म मैंने किया था। मेरी आत्मा पर इसी बात का बोझ है। "
" पर अनुसूचित जातियों, अति पिछड़ों को समाज के अन्य वर्गों के बराबर लाने के लिए आरक्षण देना तो न्यायोचित ही है, अन्यथा वे बराबरी मे आएंगे कैसे? "
" हाँ, पहले मैं भी यही सोंचता था। पर अब मेरी समझ मे ये आ चुका है कि मैंने एक बहुत हीं भयंकर भूल की थी। पिछड़ी जतियों को यदि बराबरी मे लाना है, तो उसके लिए सबसे जरूरी है कि इन जातियों मे पढे लिखे लोगों का अनुपात तेजी से बढ़े ताकि वे सवर्ण जातियों के पढे लिखे वर्ग के अनुपात की बराबरी कर सकें, या कम से कम उनके आस पास हीं आ सकें। आज के युग मे विद्या अर्थात शिक्षा ही गरीबी एवं सभी प्रकार के पिछड़ेपन से लड़ने का एक सबसे बड़ा ब्रह्मास्त्र है । और इसे समझते हुए भी इस पर ज़ोर ना देकर, पिछड़ी जातियों की पढ़ाई के लिए कोई ठोस एवं कारगर व्यवस्था ना कर, मैंने विशेष ज़ोर सिर्फ आरक्षण पर दिया, यही मेरी सबसे बड़ी भूल थी। "
" पर आपने शिक्षण संस्थाओं मे भी आरक्षण का प्रावधान तो किया ही है। इसके कारण निचले तबके के बच्चे भी आज बड़ी संख्या मे पढ़ रहे है। " मैंने विरोध जताते हुए कहा।
"हाँ, सही कह रहे हो पर इसका लाभ भी वही लोग उठा रहे हैं जो आर्थिक रूप से पहले से ही सक्षम हैं। एक गरीब मुशहर का बेटा, जो पुस्तकें खरीदने की भी क्षमता नहीं रखता,वह ज्यादा से ज्यादा अपने बेटे को मुफ्त स्कूली शिक्षा दे सकता है, उससे ऊपर पढाने की बात तो वह सोंच भी नहीं सकता। इसके लिए उसे पढ़ाई आधारित आर्थिक बैशाखी प्रदान करने के साथ साथ, पढ़ाई कैसे उसकी जिंदगी बदल सकती है अर्थात एक सामाजिक चेतना जगाने की भी आवश्यकता थी,जो मैं नहीं कर पाया। इसके अलावा, इन जातियों मे लागू की गई सरकारी योजनाएँ कितनी कारगर सिद्ध हो रही हैं, शिक्षित वर्ग का अनुपात बढ़ रहा है या नहीं, बढ़ रहा है तो कितना बढ़ रहा है, आदि की वार्षिक जांच पड़ताल की भी आवश्यकता थी, जिसका प्रावधान दुर्भाग्यवश मैं संविधान मे नहीं कर सका। "
ऐसा लग रहा था जैसे बाबा फिर से संविधान निर्माण की यादों मे खो गए हों। आंखेँ, आधी बंद, आधी खुली, चेहरे पर कई तरह के भाव आ रहे थे, जा रहे थे। फिर अचानक गुस्से मे तमतमाई आवाज मे बोल पड़े -
" जानते हो, जब मैंने नौकरियों मे आरक्षण का प्रावधान किया था, तो मेरी सोंच यह थी कि आरक्षण कोटा से नौकरी पाये लोग अपने समाज की सेवा करेंगे, क्योंकि उन्हें नौकरी अपने पूरे समाज के कोटे पर प्राप्त हुई है, अत: उनका ये दायित्व बनता है कि वे अपने अनपढ़ भाइयों को शिक्षा प्राप्त करने मे मदद करें। मेरी यह सोंच थी कि वे दलितों तथा पिछड़े वर्ग के अपने भाइयों मे पढ़ाई के प्रति जन जागृति लाएँगे, इस कार्य मे उनकी सहायता करेंगे। पर अफसोस मैं कितना गलत था। सब के सब नौकरी मिलते ही अपने भाई बंधुओ को भूल गए। आज दलित नौकरशाहों की स्थिति भी किसी सवर्ण नौकरशाह से भिन्न नहीं है। वे भी बस एक ही काम मे रात दिन लिप्त हैं, कि कैसे ज्यादा से ज्यादा पैसा बनाया जाए। इतना जल्द वे चोरी, चमारी, घूसख़ोरी मे लिप्त हो जाएंगे, कभी सोंचा भी ना था। आज तो वे अपने दलित विरादरी के लोगों से मिलने से भी कतराते हैं। क्या इसी के लिए मैंने संविधान मे समानता के अधिकार के साथ छेड़-छाड़ किया था ?"
"इस छेड़ छाड़ के कारण स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि आज लगभग सभी जातियाँ अपने लिए आरक्षण की मांग कर रही हैं। गुजरात मे तो अब ब्राह्मण भी अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं, आर्थिक रूप से सम्पन्न पटेल तो आंदोलन कर ही रहे हैं। राजस्थान मे, हरियाणा मे, धीरे धीरे यह आग पूरे भारत वर्ष मे फैलती जा रही है। मैंने कल्पना भी नहीं किया था कि आरक्षण के कारण देश मे ऐसी भयंकर आग की लपटें उठेंगी। "
" हाँ महाराज, ये तो है। आज भारत मे कोई ऐसी जाती नहीं है जो आरक्षण का लाभ लेना नहीं चाहती। ये तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का कि जिसने सभी प्रकार के आरक्षण का दायरा 50% पर सीमित कर दिया है, वरना इन नेताओं का यदि वश चलता तो ये 100% आरक्षण देने मे भी नहीं हिचकते।अब तो ये पूरी जनसंख्या मे जातियों के अनुपात अनुसार आरक्षण की बात करने लगे हैं। " बहुत दबाने के बाद भी मैं अपने विचारों को प्रकट करने से रोक नहीं पाया।
" हाँ, यही तो भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात है। अफसोस है, अफसोस है, मैंने ये क्या कर दिया, मेरा भारत आज एक सुलगते हुए एटम बम के मुहाने पर बैठा है, कब फट जाए कोई नहीं जनता। मैंने भारत वर्ष को जातिवाद की आग मे झोंकने का काम किया है। हाय रे दैव, मैं दोषी हूँ, सिर्फ मैं दोषी हूँ इस पाप का।"
बाबा की गोल गोल वर्फ जमी आँखों से आँसू टपक रहे थे। ऐसा लगा जैसे उनके अंदर के पश्चाताप की गर्मी आँखों के रास्ते पिघल पिघल कर जमीन पर गिर रहा हो। बाबा को इस तरह अधीर एवं व्याकुल होते देख मैं भी अपने आप को रोक ना सका। मेरी आँखें भी भर आयीं। बाबा इस बात से व्यथित थे कि जिस हिंदुस्तान को उन्होने इतने नाज़ों से , इतने अरमानों से सजाया संवारा था, वो आज आरक्षण की आग मे झुलस रहा है। मैंने बाबा को ढांढस बांधते हुए कहा -
" अब जो होना था वो तो हो चुका, पर आगे इसे ठीक करने का क्या रास्ता है महाराज ? "
" बहुत मुश्किल है, बहुत मुश्किल है इसे ठीक करना। जानते हो, लालू और नितीश जैसे लोग जिन्हें तुम मेरा चेला बता रहे हो, वही मेरे सबसे बड़े दुश्मन हैं। ये लोग अपने अपने स्वार्थ की रोटी सेंक रहे हैं। जात-पात एवं आरक्षण के नाम पर राजनीति कर ये पिछड़ी जातियों के लोगों को मूर्ख बना रहे हैं। इनका मूल उद्देश्य है, आरक्षण चली जाएगी इस बात का डर दिखाकर समाज के दलित एवं पिछड़े वर्गों का वोट प्राप्त कर सत्ता हासिल करना और एक बार जब सत्ता हासिल हो जाए तोअरबों खरबों की रकम घूस एवं अन्य भ्रष्ट तरीके से अपने एवं अपने परिवार के लिए हासिल करना। लालू तो इसी कारण जेल भी जा चुके हैं और अभी भी जमानत पर घूम रहे हैं। नितीश का भी नाम उस घोटाले से प्राप्त रकम के बँटवारे मे आया था, पर जैसे तैसे सीबीआई ने उसे दबा दिया। नितीश और लालू ही क्यों, आज हिंदुस्तान मे बीजेपी सहित किसी पार्टी मे इतनी हिम्मत नहीं है जो यह कह सके कि देश मे आरक्षण के मुद्दे पर लगी आग के कारण इसकी समीक्षा अनिवार्य है। " बाबा बहुत ही व्यथित स्वर में कुछ सोंचते हुए बोले।
" आप ठीक कह रहे हैं महाराज, यहाँ एक संस्था है- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ । उसके सरसंघ चालक मोहन भागवत ने कुछ दिनों पहले देश मे बढ़ते आरक्षण की इसी आग को देख, एक वयान दिया था कि आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा होनी चाहिए, ताकि यह पता चल सके कि अपने उद्देश्य पूर्ति मे यह व्यवस्था कहाँ तक एवं कितनी सफल साबित हुई है। पर जानते हैं महाराज, लगभग देश की सभी पार्टियां उनके वयान पर ऐसे लूझ पड़ीं जैसे किसी मरे व्यक्ति के लाश पर गिद्ध कूद पड़ते हैं ।" मैंने बाबा की बातों का समर्थन करते हुए कहा।
" जानते हो, एक मरीज भी बेड पर तभी तक पड़ा रहता है जब तक वह डाक्टरी इलाज से ठीक न हो जाए। उसका रोम रोम इस बात का इंतजार करता रहता है कि कैसे वह ठीक होकर फिर से अपने पैरों पर जल्द से जल्द चलना शुरू करे। पर लालू, नितीश, मुलायम, कांग्रेस एवं मायावती जैसी पार्टियां दलितों, पिछड़ों को हमेशा हमेशा के लिए बेड पर ही सुलाये रखना चाहती हैं। इनका बस चले तो संविधान मे मैंने आरक्षण के रूप मे जो अस्थायी व्यवस्था की थी, उसे ये उसे हमेशा हमेशा के लिए एक स्थायी प्रावधान बना देंगे । लालू जैसे नेता जिनके मात्र नौवाँ पास बच्चे बिना कोई काम किए 50 लाख की कार एवं डेढ़ करोड़ से ज्यादा की संपत्ति के स्वामी हैं, वे भला दलितों, पिछड़ों को अपने पैरों पर क्यों खड़ा होने देंगे ? इनका हित तो इन्हें हमेशा हमेशा के लिए आरक्षण रूपी नशे का इंजेक्शन देकर सुलाये रखने मे हीं है। "
बाबा बोलते बोलते रुक गए और फिर मेरी ओर गहरी नजरों से देखने लगे। मैंने सकुचाते हुए पूछा-
" पर बाबा, आप मुझसे क्या चाहते हैं, मेरे पास आपके आने का प्रयोजन क्या है? "
बाबा की नजरों मे पहली बार मैंने एक चमक देखी। ऐसा लगा जैसे उनके अंदर का द्वंद शांत हो चुका है और वे अब संविधान निर्माण की यादों से बाहर आ चुके हैं। उन्होने बड़े शांत भाव से कहा-
" बड़े सोंच विचार के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि आरक्षण के इस बढ़ते आग की ज्वाला से देश को बचाने के लिए सिर्फ तीन ही रास्ते बचे हैं और ये तीनों रास्ते एक दूसरे के पूरक हैं । पहला तो ये, कि अब सुप्रीम कोर्ट ही इसकी समीक्षा की पहल करे। शिक्षा के मान दंड पर दलित एवं पिछड़ी जातियाँ सवर्णों की तुलना मे कितना गैप भरने मे सफल रही हैं, अभी भी उन्हें आरक्षण रूपी बैशाखी की आवश्यकता है या नहीं, इन सारी बातों की समीक्षा सुप्रीम कोर्ट ही करे क्योंकि यह काम कोई भी राजनीतिक पार्टी चाह कर भी नहीं कर पाएगी। सभी पार्टियों को इस बात का डर है कि जैसे ही वे आरक्षण पर समीक्षा की बात करेंगे, विरोधी पार्टियां मतदाताओं को उनके विरुद्ध भड़काने मे लग जाएंगी और उनका सब से ज्यादा नुकसान हो जाएगा। इसलिए अब सुप्रीम कोर्ट को ही आगे बढ़ कर इस मामले को हाथ मे लेना चाहिए तथा समीक्षा प्रक्रिया का प्रारम्भ करना चाहिए। "
" हाँ महाराज, आपकी बात थोड़ी कड़वी
तो है, पर व्यावहारिक है, क्योंकि राजनीतिक पार्टियों से इस विषय मे कुछ भी उम्मीद करना व्यर्थ है। " मैंने बाबा की बातों से सहमति प्रकट करते हुए कहा। वास्तविकता यह थी कि बाबा के सुझाए रास्ते के अलावा और कोई रास्ता बचा भी नहीं है।
ऐसा लगा जैसे बाबा अपनी बातों का मुझ पर कितना प्रभाव पड़ रहा है इसका आकलन कर रहे हों। मेरी ओर गहरी नजर से देखते हुए बोले -
"ये तो हुआ कानूनी रास्ता पर एक और दूसरा रास्ता भी है, जो निर्भर करता है देश की केंद्र और राज्य सरकारों पर, और वो है देश का तेज, और तेज गति से आर्थिक एवं सामाजिक विकास ताकि देश के दलित, पिछड़ा एवं अन्य सभी जातियों के गरीबों के हाथ मे भी अतिरिक्त आम्दनी, अतिरिक्त आय के स्रोत आ सके। इतनी आम्दनी हो सके कि वे न सिर्फ अपने परिवार का अच्छी तरह भरण पोषण कर सकें, बल्कि अपने बच्चों को उच्च शिक्षा भी दिला सकें। कहते हैं पैसा आने पर आदमी का विचार, रहन सहन एवं नजरिया भी बादल जाता है। इससे गरीबों के हाथ मे न सिर्फ पैसा आएगा बल्कि अपने बच्चों को पढाना आवश्यक है, नजरिया भी बदलेगा।"
" हाँ महाराज, आप ठीक कहते है। हमारे देश के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भी यही कहते हैं। उनका तो यहाँ तक कहना है कि देश की सभी समस्याओं के समाधान के लिए बस एक ही जड़ी बूटी है, और उस जड़ी बूटी का नाम है- विकास । अपने हर भाषणों मे, देश हो या विदेश, हर जगह, हर मंच पर उनका एक ही मंत्र है, विकास, विकास और विकास। " ऐसा लग रहा था जैसे बाबा मेरे अंदर की छुपी भावनाओं को कुरेद कुरेद कर बाहर निकाल रहे हों। बाबा मेरी बातें सुन हंस पड़े और बोले -
" जानते हो, इसी लिए मैं इस व्यक्ति को सिरफिरा कहता हूँ क्योंकि ये जहां जाता है सिर्फ विकास की बात करता है। अमेरिका, जापान, चीन, जर्मनी, कनाडा, आस्ट्रेलिया , फ्रांस , हर जगह, जहां भी वो जाता है, न सिर्फ विदेशी सरकारों बल्कि परवासी भारतियों को भी प्रेरित करता है कि वे भारत मे निवेश करें ताकि भारत का विकास हो सके। रात दिन इसका बस एक ही सपना है कि भारत कैसे विकसित देशों कि श्रेणी मे खड़ा हो जाए। हम लोगों के जमाने मे यदि ऐसा प्रधान मंत्री होता, तो शायद मुझे आरक्षण का प्रावधान करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।" बाबा ने मेरी आँखों मे आँखें डाल मुस्कुराते हुए कहा।
"पर अभी भी आपने मेरे पास आने का क्या प्रयोजन है, यह नहीं बताया बाबा ! " मेरी उत्सुकता लगातार बढ़ती ही जा रही थी। मैं अपने आप को रोक न सका।
" बताता हूँ, बताता हूँ, इतने अधीर क्यों हो रहे हो ? अच्छा यह बताओ कि तुम एक शिक्षक हो, ऊपर से लेखक भी हो, क्या तुम दलितों एवं पिछड़े वर्ग के बच्चों की पढ़ाई तथा उनमे एक सामाजिक चेतना जागृति मे कुछ मदद कर सकते हो ? " उन्होने थोड़ा गंभीर होते हुए पूछा।
" आप किस तरह की मदद चाहते हैं बाबा, मैं तो अब रिटायर्ड भी हो चुका हूँ, मैं क्या सेवा कर सकता हूँ । " मैंने थोड़ा हिचकिचाते हुए पूछा ।
" तब तो और भी अच्छा है। यही तो मैं चाहता हूँ कि देश के रिटायर्ड लोग, चाहे वे किसी भी क्षेत्र के हों, समाज के दलितों एवं पिछड़े वर्ग के लोगों को थोड़ा समय निकाल कर पढ़ाएँ तथा उनमे पढ़ाई के प्रति एक सामाजिक चेतना का सृजन करें। सक्रिय नौकरी मे लगे लोग भी समय निकाल कर यदि इस कार्य मे हांथ बंटा सकें तब तो और भी अच्छा, वरना रिटायर्ड लोगों को ही इसमे नेतृत्व प्रदान करना होगा। देश के दलितों, पिछड़े वर्ग के अपने भाई बंधुओं को न सिर्फ शिक्षित करना बल्कि उनमे एक सामाजिक चेतना जगाना, यही है वो तीसरा रास्ता जिसकी बात मैं कर रहा था।"
मैं गहरी सोंच मे डूब गया। बाबा की बातें, जो सुनने मे तो अच्छी लगती हैं, पर क्या धरातल पर उतारना संभव है। सभी तो अपने अपने मे मगन हैं। किसको इतनी पड़ी है जो दलितों या पिछड़ों के लिए समय निकाल उनकी बस्ती मे जा पाएगा। परंतु थोड़ा और गहन सोंच विचार करने पर लगा, यह एक बहुत ही नवीन तथा क्रांतिकारी विचार है। देश मे ऐसे लाखों करोड़ों सेवा निवृत लोग हैं जो यूं ही समय बिता रहे हैं। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा कि सेवा निवृत के बाद करें क्या? वे तो बस बैठें हैं कि जैसे कोई आवे और उनसे कहे " चलो पढ़ाएँ, देश बनाएँ " । जरूरत है तो बस एक समर्पित सिरफिरों की टोली की, जो इसे देश के कोने कोने मे राष्ट्रीय स्तर तक इस योजना को ले जा सकें और ऐसे लोगों को इसमे शामिल कर सकें। जब प्रधान मंत्री के एक आह्वान पर देश के कोने कोने मे सफाई अभियान चल पड़ा है, तो कोई कारण नहीं है कि प्रधान मंत्री यदि सेवा निवृत, पर कुछ कर गुजरने के लिए बेचैन लोगों की टोली का आह्वान करें तो, देश मे दलितों एवं पिछड़ों की शिक्षा मे अपना योगदान देने के लिए वे आगे न आयें। देखते देखते कुछ ही वर्षों मे देश शिक्षा के क्षेत्र मे विश्व के अन्य देशों की बराबरी कर सकता है।
" बाबा, मैं आपके विचारों से सहमत हूँ। आप जैसा कहेंगे वैसा ही होगा । बाबा मैं पहले भी आपके साथ था, अब भी आपके साथ हूँ।" मैं काफी उत्तेजित हो चुका था, अत: लगभग हाँफते हुए कहा।
तभी ऐसा लगा जैसे कोई ज़ोर ज़ोर से मुझे झकझोड रहा है। पत्नी की आवाज कानों मे सुनाई पडी -
" अजी उठिए, उठिए ना, क्या बाबा बाबा बड़बड़ा रहे हैं ? रात भर सपना देख रहे थे क्या ? " आँख खुली तो देखा सुबह हो चुकी थी।